Tuesday, June 5, 2012

नदी


पर्यावरण दिवस पर सिमटे हुए मेरे कुछ शव्द 


नदी 
न बांध मुझे ये इन्सान,
इस मीट्टी के घरोंदे में !
कब तक रोकेगा मुझे भला 
मैं तो चलने के लिए आई हूँ !
मेरे अपने कुछ राह तकते हैं,
देख मुझे यूँ उनके अश्क छलकते हैं !
जीवन देने आई हूँ मैं,
देख वो कैंसे बिलखते हैं !
आ जाऊं अपने पर यदि मैं 
जड़ से मिटाकर ले जाउंगी,
दया भाव कुछ मन में मेरे,
इसलिए दुःख कुछ पि जाउंगी 
पर मेरे थमने और चलने में 
है दोनों में  नुकसान तुझे 
खुछ दूर खड़े तेरे अपने प्यासे 
हा प्यास भुझानी उनकी मुझे !
मैं चलने के लिए आई हूँ 
मेरा चलना ही हितकर है,
मेरे रुकने से तेरा कहाँ 
आगे सोच कहाँ सफ़र है ...........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 


नोट :
आज नदी की दयनीय दशा पर कुछ लिखा है या यूँ कह सकते हैं की  बर्षों से नदी के मन में जो भव विचरण कर रहे थे वो आज बहार निकल गए, मानव से विनीति कर रहे हैं कि हे मानव तू मुझे मत रोक मैं प्रलय की ज्वाला हूँ, वो तो मैं इस लिए चुप बैठी हूँ कि अबोध जन भी मेरी राह में है अन्यथा मैं कब के इस मिटटी कि दीवारों को घसीटती हुयी साथ में ले जाती, अभी भी समय है जाग जा 



मशरूम च्युं

मशरूम ( च्युं ) मशरूम प्राकृतिक रूप से उत्पन्न एक उपज है। पाहाडी क्षेत्रों में उगने वाले मशरूम।